About Vastu Shastra

आप आपका मकान देख कर चेक कीजिए अगर आपकी व्यवस्था येसी है।
तो क्या आपके साथ ये घटना हो चुकी है। मैंने कुछ example दिए है


NORTH EAST :- Kitchen, toilet, Bath, W.C., Staircase, Storeroom, Septic Tank, Cut Area

Male child related problem
Depression
Job less
Marriage life problem like divorce and sepretion

Tension migraine, paralysis,
Cancer
Struggle 10% result only
Education problem

Property
Female health problem
Loss of many


SOUTH EAST :- WATER TANK, BEDROOM, TOILET BATHROOM, STORE, SEPTIC TANK, CUT AREA

Ladies health issues
Marriage delay
Week sex life

Destroy luxury life
Male child problem


SOUTH WEST :- TOILET, BATH, .W.C., STORE, U.WATER TANK, KITCHEN, SEPTIC TANK, DIG.

Negative thought
Financial problem
Growth stop

Accident problem
Court matter
Wrong life partner


NORTH WEST :-WATER TANK ONLY

Court matter
Increase enemies
Over confidence

आपके घर की व्यवस्था कैसे होनी चाहिए ये जानने के लिए आप हमारी AAPLICATION पर VISIT कर सकते है वहा पर मैंने नीचे दिए हुए TOPIC विस्तार से लिए है

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नीचे दिए हुए TOPIC एक बहुत सही DIRECTION मे आपको लेके जायगा

कथा, वास्तु शास्त्र वेद के नाम वास्तु शास्त्रउप वेद वास्तु शांती कब कारनी चाहीये 81 पद वास्तू दिशाये ग्रह देवताभूमी परीक्षण 3 प्रकार भुमी दोष व निवाराण खुदाई मे प्रात वस्तू का फल त्याज्य भुमी 5 element, 4 DIRECTIONDEGREE,8 DIRECTION DEGREE, 16 DIRECTION DEGREE, मिट्टी के प्रकार उच्चाई और ढलान, भुखंड के आस पास का क्षेत्र भुमी के प्रकार, वेध के प्रकार द्वार की स्थापना भवन का मुख्या द्वार मर्म एव अती मर्म स्थान वास्तु चक के अनुसार मुख्य द्वार मुख्या द्वार की स्थपना ईट का विचार शुभ अशुभ उर्जा स्थान खिडकी झरोखा बरामदा भवन की उच्चाई बेसमेंट सेप्टीक टैंक आवासीय भवन 16 झोन पुजा घर भण्डार गृह बाथरुम, भारी एव कम उपयोगी सामान भंडार, सूतीका गृह Study room, Dining room रोदन गृह अन्न भंडार एवं पशुशाला दही मंथन कक्ष भारी एव कम उपयोग सामान भंडार, सूतीका गृह, रोदन गृह अन्न भंडार एव पशुशालारती गृह. कोषागार औषधी कक्ष, बोरीग कुढा Undergraund water tank, staircase, lift, case study, open space and slop w.C., bed room attached toilet, kitchen, store room bed room, study room, dining room bed

- NORTH EAST मे क्या नही होना चाहीये
- SOUTH EAST में क्या नही होना चाहीये
- NORTH WEST मे क्या नही होना चाहीये
- क्या कोन से DIRECTION में क्या होना चाहीये

वास्तु शास्त्र क्या है आइए जानते है इसके बारे मे थोड़ा

मनुष्य जीवन के चारो पुरुर्षाथ जो धर्म-अर्थ काम मोक्ष यह कहे जाते हैं उसकी प्राप्ती इस शास्त्र के माध्यम से हो सकती हैं इसे जीवन का फल प्राप्ती कारक भी कहा ज्या सकता है। विदवान लोग इस शास्त्र को बहुत पसंद करते हैं सुखो की प्राप्ती के लिये इसका उपयोग करते हैं

शिल्पशास्त्र के बिना इस ब्रम्हांड मे तीनो लोको मे कुछ भी नही हैं श्री विश्वकर्मा जी जो इस वास्तु शास्त्र के रचयिता है वह समस्त मानव तथा प्राणी यो को बहुत ही आसानी से समझाते हैं उनका केहना है की यदी आप वास्तुशास्त्र के सिध्दन्तो को अच्छी तरह से समझ या जान लेते हैं, इसमे छीपे जीवनावश्यक परीपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करते है तो हमें इस धरती पर स्वर्ग की प्राप्ती होना निश्चित हैं। घरमे ही हम स्वर्ग मे मिलने वाले सुखो को अनुभव कर सकते हैं

विश्वकर्मा जी का कहना हैं इस शास्त्र का उपयोग करके कोइ भी मनुष्य अपनी समस्याओं का समाधान कर सकता हूँ सुख, शांती, समृध्दी सुदर स्वास्थ आदि हर प्रकारका लाभ मिल सकता हैं. इस ज्ञान के कारण ही मनुष्य को देहीक एव आत्मीक सुरक्षा की प्राप्ति होती हैं. मनुष्य तो सभी प्रकार की सुखो के लिये सदियों से प्रयास करता आ रहा है इसे अपना कर वह अपने लक्ष की प्राप्ती कर सकता हैं. ब्रम्हांड में इस शास्त्र की उपस्थिती सबसे अधिक मूल्यावान है

जब तक सृष्टी बनी रहेगी तब तक यह शास्त्र काम करता रहेगा क्योंकि यह सुष्टी पंचतत्व से बनी है और वास्तु शास्त्र के सिध्दात भी पंचतत्व पर आधारीत है हमारा जीवन बहुत ही मूल्यावान और अनमोल हैं। एक बहुत लबा सफर तय करने के बाद हुमे यह जीवन मीलता है जो की लगभग चौरासी लक्ष योनिओ का होता है।
वास्तु का अर्थ :
वास्तु शब्द के दो अर्थ होते हैंः मुख्य रूप से इसका अर्थ हैं वह जगह जहा पर लोग रहते हैं:

अमांश्चेव मर्त्याश्च यत्र यत्र वसन्ति हि ।
तद् वस्त्विाति मतं तज्ज्ञेस्तभ्देदं च वन्दाम्यहम् ॥
( मयमतम 2,1)

वास्तु संस्कृत शब्द वास से बना है। जिसका अर्थ है वास करना, निवास आदि शब्द जो घर और उसमे रहने वाले लोगो संबधीत है। मूलतः संस्कृत धातु वस' से अदभुद हैं। वास्तु के इस पहले अर्थ में भवन और भवन निर्माण स्थल शामिल है। स्थान का चयन वास्तुकला सिविल इंजीनिअरींग भु-परिदृश्य और ज्योतिष्य शाख वास्तु शाख के अनिवार्य अंग है वस्तु का अध्ययन भी वास्तुशास्त्र कहलाता है।

भुमि-प्रासाद-यानानि-शयनं च चतुर्विधम।
भूरेव मुख्यवस्तू। स्यात् तत्र जातानि यानि ही ।।
मयमतम 2,2

ब्रम्हा ने पृथ्वी की रचना की इसलिए वास्तुपुरुष मंडल में उनकी जगह बीच मे है। मयमतम चार प्रकार की वास्तु का वनर्ण करता है "रहने की जगह चार है पृथ्वी, मंदीर, वाहन, आसन। इन चारो में पृथ्वी मुख्य है।
जब मानव ने अपने व्यवहार में गणित का विकास किया कि हमको एक निश्चित स्थान पर रहना चाहिए हमको एक निश्चित परिमाप में रहना चाहिए तो इस प्रकार से वैदिक काल से ही हमारे यहां वास्तु शास्त्र का विकास हुआ बीजारोपण हुआ उसके बाद कई प्रकार के कालखंड आए इस पर विस्तार से हम चर्चा करेंगे ।

एक हमारा काल आया पराग वैदिक काल पराग वैदिक काल जब आया तो उसे समय हमारे यहां प्रमाण प्राप्त होते है। कि लोग स्वतंत्र रूप से पहाड़ियों में जलप्रपातों में नदियों के किनारे रहा करते थे तो वस्तु में केवल दो तत्वों का विचार किया जाता था जहा जल मिल जाए और जहा भूमि मिल जाए जहां पर रहने के लिए बसेरा हो और जहां पीने का जल हो वहीं पर व्यक्ति निवास कर लेते थे तो एक पराग वैदिक काल था।

उसके बाद वैदिक काल की ओर हम बढ़ाते हैं। जहां पर व्यक्ति ने पर्ण कुटीर पत्तों से कुछ सामग्रियों के योग से अपने आवासों का निर्माण किया तो पराग वैदिक काल के बाद जो एक कल आया वह वैदिक काल आया और वैदिक काल और पराग वैदिक काल में यह अंतर है। कि पराग वैदिक काल में व्यक्ति केवल जलवायु पर ध्यान देता था पराग वैदिक काल में अग्नि आग पर क्योंकि भूमि के साथ-साथ उसकी सुध जब उसकी सुधा जब उसको लगी तो अग्नि के साथ भोजन का अन्य का सहयोग करके वैदिक काल में तीन तत्वों के प्रधान ता से वास्तु शास्त्र का विनियोग हुवा शास्त्र बाद में बना व्यवहार में वास्तु शास्त्र वैदिक काल में आया।

उसके बाद वैदिक काल के बाद हम और आगे बढ़ेंगे तो हम उसको कहते हैं वैदिक उत्तर काल या मध्यकाल मध्यकाल से भी पहले एक वैदिक उत्तर काल है। अर्थात वैदिक उत्तर काल में अब हम पराग वैदिक काल में जहां दो तत्व थे वैदिक काल में तीन तत्वों की प्रधानता थी पराग वैदिक उत्तर काल में पृथ्वी जल आकाश और उसके साथ-साथ हम वायु को भी व्यक्ति ने ध्यान दिया अब व्यक्ति यह ध्यान देने लगा कि किस प्रकार की वायु में रहा जाए किस प्रकार के वायु से हमें स्वास्थ्य लाभ होगा

प्रकाश से किस प्रकार का फल मिल रहा है तो यह चौथा तत्व का विनिमय वैदिक उत्तर काल में हुआ और मध्यकाल तक आते-आते जहां हमारे पास सिंधु घाटी के सभ्यता मिलती है हमें कुछ अवशेष मिलते हैं मध्यकाल के हम उसे समय ऐतिहासिक भवनों का भी अवलोकन करते हैं तो हम यह कह सकते हैं की चौथी शताब्दी तक जब वराह मिहिर काल हुआ और हमारे यहां भारत में वास्तु शास्त्र की दृष्टि से एक और महत्वपूर्ण चीज जानने योग्य है कि हम जब मध्यकाल कहते हैं तो सिद्धांत ज्योतिष में मध्यकाल अलग है।

वास्तु शास्त्र का क्रमिक विकास पुरानो मे भी प्राप्त होता है पूरणकाल मे वास्तु शास्त्र के विकास की परंपरा में मध्यकाल अलग है। क्योंकि वास्तु शास्त्र का विकास अत्यंत प्राचीन काल से हुआ तो बराह मिहिर के काल से ही वास्तु शास्त्र का मध्यकाल प्रारंभ हो जाता है। उसे समय नगर सभ्यताएं ग्राम सभ्यताएं आपको प्राचीन अवशेष जहां मिलेंगे शिलालेख इत्यादि वह सब आपको उसे कल के मिलेंगे तो वह जो मध्यकाल है इस मध्यकाल में हमारे पास पांचो तत्वों को समाहित करके निर्माण हमको देखने को मिलता है क्योंकि राजाओं ने जल का भी विशेष ध्यान रखा सूर्य की किरणें कहां से आती है कहां जाती है। इसका भी ध्यान रखा रिक्त स्थान का आकाश का भी विशेष ध्यान रखा और वास्तु शास्त्र के जो और इकाइयां थी जिन इकाइयों की चर्चा हम करेंगे उसका भी उन्होंने विशेष रूप से ध्यान रखा उसके बाद एक और महत्वपूर्ण बात है कि वास्तु शास्त्र के18 प्रवर्तक आचार्य हुए

1. भृगु
2. अत्रि
3. वसिष्ठ
4.विश्वकर्मा
5. मय
6. नारद
7. नग्नजीत
8. विशालाक्ष (भगवान शंकर)
9 पुरन्दर (इद्र)
10. ब्रह्मा
11. कुमार (कार्तिकेय)
12. नन्दिश
13. शौनक
14. गर्ग
15. वासुदेव
16. अनिरुद्ध
17. शुक्र
18. बृहस्पति

वास्तु शास्त्र के प्रवर्तक आचार्य यदि हम माने तो हम विश्वकर्मा को मानते हैं विश्वकर्मा वास्तु शाख प्रवर्तक आचार्य हैं और उनकी रचना जो है वह है विश्वकर्मा, विश्वकर्मा-प्रकाश विश्वकर्म प्रकाश प्रामाणिक रूप से प्रतिपादन विश्वकर्मा प्रकाश में किया गया है धीरे-धीरे समय के सापेक्ष सिद्धांतों की व्याख्या आचार्य ने की है लेकिनइसके बाद हम थोड़ा आगे बढ़ेंगे तो और एक प्रामाणिक ग्रंथ हमारे पास है वास्तुराजवल्लभ मंडल एक पुस्तक है

वास्तु मंडल इसके बाद वराहमिहिर ने रचना की है वराहमिहिर की रचना है, बृहदमंहिता, बृहद संहिता ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत स्कंध का ग्रंथ है और इस बृहद संगीता ग्रंथ में आचार्य वराह मिहिर ने वास्तु विद्या अध्याय वराहमिहिर। बृहणमंहिता में एक वास्तु विद्या अध्याय इस नाम से एक अध्याय को जोड़ा है इस ग्रंथ के आधार पर भी ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथ के रूप में संगीता स्कंध में वास्तु विद्याधर की चर्चा आचार्य ने की है और कुछ प्रामाणिक ग्रंथ हैं।

वास्तु के मूल सिद्धान्त:
दस दिशाएँ - भारतीय शास्त्रीय ग्रंथों में दस दिशाओं का सिद्धान्त बहुत लोकप्रिय है। नवपद वास्तु के रूप में दर्शाया गया है। ऊर्ध्व और अधो अन्य दो दिशाएँ हैं। इन दस दिशाओं की यहाँ संक्षेप में चर्चा की गई है।

वायव्य उत्तर ईशान
ग्रः चंद्र दिः वायु ग्रः बुध दिः कुबेर ग्रः गुरु दिः ईश
पश्चिम ब्रह्मस्थान पूर्व
ग्रः शनि दिः वरुण ग्रः गुरु दिः ब्रह्मा ग्रः सूर्य दिः इन्द्र
नैऋत्य दक्षिण आग्नेय
ग्रः राहु दिः पितर ग्रः मंगल दिः यम ग्रः शुक्र दिः अग्नि

पूर्व : यह उगते सूर्य की दिशा है। इन्द्र और सूर्य क्रमशः पूर्व दिशा के दिक्पाल और स्वामी ग्रह हैं। पूर्व दिशा सत्ता, पद और समृद्धि देती है। 45 देवताओं में से चार-इन्द्र, आदित्य, सत्यक् और आर्यक- पूर्वी क्षेत्र में अवस्थित

आग्नेयः यह प्रकाश और अग्नि की दिशा है। अग्नि और शुक्र क्रमशः आग्नेय दिशा के दिक्पाल और स्वामी ग्रह हैं। यह ताप और प्रकाश प्रदान करती है जो प्रकृति के प्रक्षालक कारक हैं। 45 देवताओं में से सात-नृश, अंतरिक्ष, अग्नि, पूषन्, वितथ, सविन्द्र और साविन्द्र आग्नेय क्षेत्र में अवस्थित हैं।

दक्षिणः यह सूर्य की तप्त किरणों की दिशा है। यम और मंगल क्रमशः इस दिशा के दिक्पाल और स्वामी ग्रह हैं। गर्मी के मौसम में दक्षिण दिशा अत्यधिक गर्मी देती है इसलिए इसे बन्द रखना चाहिए। 45 देवताओं में से चार-बृहत्क्षत, यम, गन्धर्व और विवस्वन्त-दक्षिण दिशा में अवस्थित हैं।

नैर्ऋत्यः यह अपराह्न सूर्य को रेडियोधर्मी अवरक्त किरणों की दिशा है। पितर (पूर्वज) और राहु इस दिशा के क्रमशः दिक्पाल और स्वामी ग्रह हैं। हमेशा इसे ऊँचा, भारी और बन्द रखने की सलाह दी जाती है। 45 देवताओं में से सात-भृंगराज, मृश, पितर, दौवारिक, सुग्रीव, इन्द्र और इन्द्रजय-नैर्ऋत्य क्षेत्र में अवस्थित हैं।

पश्चिमः यह डूबते हुए सूर्य की दिशा है। वरुण और शनि क्रमशः इस दिशा के दिक्पाल और स्वामी ग्रह है। यहाँ सायं अधिकतम समय तक प्राकृतिक प्रकाश उपलब्ध रहता है। 45 देवताओं में से चार-पुष्प दन्त, वरुण, असुर, और मित्र-इस क्षेत्र में अवस्थित हैं।

वायव्य : यह शुद्ध वायु के प्रवेश की दिशा है। वायु और चन्द्र क्रमशः इस दिशा के दिक्पाल और स्वामी ग्रह हैं। 45 देवताओं में से सात-शोष, रोग, वायु, नाग, मुख्य, रुद्र और रुद्रराज-इस क्षेत्र में अवस्थित हैं।

उत्तरः यह सबसे ठंडी दिशा है। कुबेर और बुध क्रमशः इस दिशा के दिक्पाल और स्वामी ग्रह हैं। यह दिशा घर में रहने वालों पर स्वास्थ्य और धन की वर्षा करती है। 45 देवताओं में से चार-भल्लाट, सोम, मृग और भूधर-इस क्षेत्र में रहते हैं।

ईशानः यइ सबसे पवित्र दिशा है। ईश और बृहस्पति क्रमशः इस दिशा के दिक्पाल और स्वामी ग्रह हैं। 45 देवताओं में से सात-आदिति, दिती, ईश, पर्जन्य, जयन्त, आप और आपवत्स-इस क्षेत्र में अवस्थित हैं।

आकाशः इसे ऊर्ध्व दिशा या आकाश भी कहते हैं। यह अपार है। यह हमें सब ओर से घेरती है। इसके दिक्पाल ब्रह्मा है और बृहस्पति को इसका स्वामी ग्रह माना जाता है। बृहस्पति विस्तार का कारक ग्रह है। आकाश में शब्द व्याप्त है। आकाश ही नश्वर व शाश्वत दुनिया के मध्य सभी तरह के सम्पकों का अधिपति है।

पातालः इसे अधो दिशा या पाताल भी कहा जाता है। यह धरती का गहन अंधकार है। इसके दिक्पाल वासुकि हैं, जो नागों के राजा हैं। शनि अंधकार का स्वामी है और इसी कारण गहराइयों का ग्रह भी माना जाता है। पाताल भवन को एक स्थिर नींव प्रदान करता है। आलस्य, निष्क्रियता, सुस्ती और दृढता पाताल की प्रमुख विशेषताएँ

उपर्युक्त चर्चा के अनुसार, आठों दिशाओं की अलग-अलग विशेषताएँ हैं। वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार, भूमि की ढलान ईशान की ओर होनी चाहिए। परिणामस्वरूप, कमरे की ऊँचाई नैर्ऋत्य में न्यूनतम और ईशान में अधिकतम होगी। नैर्ऋत्य दिशा की निम्नतम ऊँचाई अपराह्न के समय सूर्य की हानिकारक रेडियोधर्मी अवरक्त किरणों को कम से कम मात्रा में प्रवेश करने देगी। ईशान की अधिकतम ऊँचाई सुबह की अमृततुल्य पराबैंगनी किरणों को अधिकाधिक मात्रा में आकर्षित करेगी।

इन आठ दिशाओं को भार धारण क्षमता के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। नैर्ऋत्य दिशा सबसे भारी होनी चाहिए। उसके बाद क्रमशः दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, वायव्य, उत्तर और पूर्व हों। ईशान दिशा जितनी हो सके, हल्की होनी चाहिए। नैर्ऋत्य दिशा को भूतल को ऊँचा करके, खिड़की व द्वारों के रूप में खुली जगहों को कम करके, ठोस मोटी दीवारों व चंदोवे (Sunshade) आदि के निर्माण द्वारा भारी किया जाता है। दीवारों में खुली जगहों को आग्नेय, वायव्य और ईशान की ओर क्रमशः बढ़ाया जाता है ताकि वे ईशान में अधिकतम हो। ईशान को भूतल को नीचा करके, द्वार, खिड़कियों, स्वागत कक्ष व बरामदे के रूप में अधिकाधिक खुली जगहें छोडकर, खोखली दीवारों (Cavity Walls) तथा जलस्रोत की खुदाई आदि द्वारा हल्का रखा जाता है।

अथर्ववेद में घर को 'ध्रुव' कहा गया है:

इहैव ध्रुवां नि मिनोमि शालां क्षेमे तिष्ठति घृतमुक्षमाणा ।
(अथर्ववेद 3.12.1)

'ध्रुव' का अर्थ है-ठोस या स्थिर। इसका अर्थ है कि घर की नींव इतनी मजबूत होनी चाहिए कि वह बिना क्षैतिज और ऊर्ध्व परिवर्तन के भवन का भार वहन कर सके। भूमि का चयन बहुत सावधानी के साथ करना चाहिए। घर की नींव सुरक्षित, अच्छी और ठोस जमीन पर रखनी चाहिए। घर का निर्माण इस प्रकार करना चाहिए जिसके चारों तरफ पानी हो। इस प्रकार यह जलदुर्ग बन जाता है। इसमें पानी की आपूर्ति और निकास के लिए सही प्रबन्ध होना चाहिए।

अपामिवं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनम्। मध्ये हृदस्य नो गृहाः पराचीना मुखा कुधि ।।
(अथर्ववेद 6.106.2)

दिल्ली स्थित लाल किला और पुराना किला को जलदुर्ग की तरह बनाया गया था। घर वातानुकूलित होना चाहिए। इसमें शीतल जल का कुंड होना चाहिए। गर्मियों में भवन को ठंडा रखने हेतु इसके चारों ओर बर्फ की चादर होनी चाहिए। घर में अग्नि की सही व्यवस्था सर्दी के दिनों में अत्यधिक ठंड से बचाने में औषधि का काम करती है।

हिमस्य त्वा जरायुणा शाले परिव्ययामसि। शीतहवा हि नो भुवोऽग्निष्कृणोतु भेषजम्।
(अथर्ववेद 6.106.3)

यह शायद विश्व साहित्य में वातानुकूलित भवन का प्रथम विशद वर्णन है। एक आदर्श मकान में बड़े तथा खुले कमरे होने चाहिए। बड़े कमरे प्रचुरता, अमीरी और संतोष के प्रतीक हैं। अथर्ववेद में इन बड़े कमरों को बृहत्छंदस् कहा गया है:

धरुण्यसि शाले बृहच्छन्दाः पुतिधान्या
(अथर्ववेद 3.12.3)

घर में घासयुक्त लॉन होने चाहिए जिनमें सुन्दर फूल खिलते हों। घर में एक तालाब या कमल पुष्पों-युक्त जलकुंडहोना चाहिए:

आयने ते परायणे दूर्वा रोहतु पुष्पिणी।
उत्सो वा तव जायतां हृदो वा पुण्डरीकवान्।
(अथर्ववेद 6.106.1)

फूल भगवान की सर्वाधिक सुन्दर कृति है और भारतीय परम्परा अनुसार कमल सबसे पवित्र फूल है। यह पाँच महातत्वों, दस दिशाओं और नश्वर संसार से निर्लिप्तता का प्रतीक है।
शाश्वत आत्मा मनुष्य के नश्वर शरीर में वास करती है। मानव त्वचा में विद्यमान असंख्य छिद्र शरीर का तापमान संतुलित रखते हैं। घर मानव शरीर का निवास स्थान है। इसमें दरवाजे, खिड़कियाँ और रोशनदान के रूप में छिद्र होने चाहिए। वास्तु-सम्मत घर में एक हजार खिड़कियाँ और अन्य खुली जगहें होनी चाहिए:

अक्षमोपशं विततं महस्वाक्षम् विषूवति ।
(अथर्ववेद 9.3.8)

आदर्श घर में सतत शुद्ध और स्वच्छ जल की आपूर्ति होनी चाहिए। ताजे जल की आपूर्ति रोगों को फैलने नहीं देती। जल कई बीमारियों का उपचार भी करता है:

इमा आपः प्र भरामि अयक्ष्मा वक्ष्मनाशनीः।
(अथर्ववेद 3.12.9)

घर में गाय और घोड़े रखें। आधुनिक युग में गाय रखने का अर्थ है-घर में शुद्ध और ताजे दूध की नित्य आपूर्ति। घोड़ों को यहाँ यातायात के साधन के रूप में समझना चाहिए। घर को ऊँचाई पर स्थित होना चाहिए:

इहैव धुवा प्रति तिष्ठ शालेऽश्वावती गोमती मृनुतावती ।
ऊर्जस्वती घृतवती पयस्वत्युच्छयस्व महते सौभगाय।
(अथर्ववेद 3.12.2)

घर में दूध और मक्खन की भरपूर आपूर्ति होनी चाहिए। घर में दूध और दही से भरे पात्र होने चाहिए:

एमां परिस्रुतः कुम्भ आ वध्नः कलशैरगुः।
(अथर्ववेद 3.12.7)

घर में आवश्यक खाद्य पदार्थों की सदैव उपलब्धता संतोष प्रदान करती है। कभी भी आपातकालीन स्थिति का अनुभव नहीं होता। घर में सभी प्रकार के अनाजों का भंडार होना चाहिएः

विश्ववान्न विभ्रती शाले।
(अथर्ववेद 9.3.16)

बहुमूल्य वस्तुएँ, सोना, गहने तथा अर्जित धन को रखने की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। इनको सुरक्षित और गोपनीय जगह पर रखना चाहिए, जो मुख्य द्वार से सर्वाधिक दूरी पर होः
उदर शेवधिभ्यः।
(अथर्ववेद 9.3.15)

मकान तब घर कहलाता है जब वह खेलने वाले बच्चों से भरा हुआ हो। घर की असली पूंजी उसमें रहने वाले बच्चे हैं:
आ त्वा वत्यो गमेदा कुमार आ धेनवः मायमास्यन्दमानाः।
(अथर्ववेद 3.12.3)

घर में खर्च करने के लिए पर्याप्त धन होना चाहिए, खाने के लिए स्वादिष्ट भोजन हो और निवासी कभी भी भूख व प्यास से पीड़ित न हों:
उपहृता भूरिधनाः सखायः स्वावुर्यमुदः ।
अनुय्या अनुष्या स्तगृहामास्मन् विभीतन।।
(अथर्ववेद 7.60.4)

सभी निवासी सत्यभाषी, भाग्यशाली, धन से ओत-प्रोत और प्रसन्नमना होः
सूनुतावन्तः सुभगा इरावन्तो हमामुवाः।
(अथर्ववेद 7.60.6)

प्रकृति की शक्तियों की उपासना करनी चाहिए। घर में पवित्र यज्ञ करने चाहिए। किसी को लालची नहीं होना चाहिए। घर में गाय जैसे शुभ और उपयोगी पशु होने चाहिए:
देवान् घृतवता यजे।
गृहान अलुभ्यतो वयं यं विशेमोप गोमतः।
(अथर्ववेद 3.10.11)

अतिथि भगवान के समान होते हैं। उनका उचित रीति से स्वागत करना चाहिए। गोदग्ध, भोजन और स्वादिष्ट तरल पदार्थों से उनकी अभ्यर्थना करनी चाहिएः

वास्तु कन्सल्टन्मी के लिए आप हमे call कर सकते है।
सिवल इंजी. उमेश पाटील
(मास्टर इन वास्तु शास्त्र)
Mob.+91 9175876334